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हाता रहीम
हाता रहीम
प्रकाशक :
राधाकृष्ण प्रकाशन |
प्रकाशित वर्ष : 2014 |
पृष्ठ :224
मुखपृष्ठ :
सजिल्द
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पुस्तक क्रमांक : 13476
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आईएसबीएन :9788183616669 |
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वीरेन्द्र सारंग का यह उपन्यास अत्यन्त तर्कसंगत ढंग से न सिर्फ इस दुरवस्था को उजागर करता है
हाता रहीम क्या किसी व्यक्ति या समाज का अस्तित्व महज एक संस्था या कुछ सूचनाओं में सीमित हो सकता है? आज के उत्तर-आधुनिक दौर की सच्चाई यही है कि देश और दुनिया की विशाल से विशालतर होती जाती आबादी में एक सामान्य जन की जगह जनसंख्या सूची की एक संख्या में सिमटकर रह जाने को अभिशप्त है। जनगणना का सूत्र लेकर चर्चित रचनाकार वीरेन्द्र सारंग का यह उपन्यास अत्यन्त तर्कसंगत ढंग से न सिर्फ इस दुरवस्था को उजागर करता है, बल्कि पूरी दृढ़ता से यह स्थापित करता है कि कुछ औपचारिक संख्याओं-सूचनाओं से किसी व्यक्ति या समाज की वास्तविक स्थिति-परिस्थिति को सम्पूर्णता में समझा नहीं जा सकता। मुख्य पात्र देवीप्रसाद की नजर से यह उपन्यास एक बस्ती के तमाम दृश्य-अदृश्य रंग-रेशों को उजागर करता है, जहाँ अभावग्रस्तता और जड़ता आम है। लेकिन प्रतिकूलताओं की परतों के नीचे दबे सकारात्मक बदलाव के बीज अभी निर्जीव नहीं हुए हैं। 'हाता रहीम' की कहानी बेशक एक बस्ती में घूमती है, लेकिन एक दाने में तसले में सीझ रहे सारे चावलों का हाल जानने की तरह यह भारत के तमाम गाँवों-कस्बों के समसामायिक यथार्थ का उद्घाटन करती है। सरकारी तंत्र इन गाँवों-कस्बों के उद्धार का वादा करने में कभी कोताही नहीं करता, मगर किसी फॉर्म के दस-बीस या तीस कॉलमों में लोगों की सूचनाएँ दर्ज करने की औपचारिकता से आगे उसकी दृष्टि प्राय: नहीं जा पाती। इस स्थिति में उपन्यास बतलाता है कि स्वप्न का सच्चाई में बदलना सम्भव नहीं है। उपन्यास का मुख्य चरित्र अपने विशिष्ट दृष्टिकोण के कारण एक ओर समाज के लिए प्रेरक की भूमिका निभाता है तो दूसरी ओर प्रतिकूल समय में व्यक्तिगत निष्ठा से समष्टिगत हित के सृजन संवर्धन का संदेश भी देता है। जनगणना विषय पर कथा साहित्य का एकमात्र यह पहला उपन्यास अपने तेवर में खास है। एक अत्यन्त पठनीय कृति!
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